रथ यात्रा : श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का हुआ उद्भव

Sri-Jagarnath-RathYatra

नई दिल्ली : भारत के उड़ीसा राज्य का पुरी क्षेत्र जिसे पुरुषोत्तम पुरी, शंख क्षेत्र, श्रीक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, भगवान श्री जगन्नाथ जी की मुख्य लीला-भूमि है। उत्कल प्रदेश के प्रधान देवता श्री जगन्नाथ जी ही माने जाते हैं। यहाँ के वैष्णव धर्म की मान्यता है कि राधा और श्रीकृष्ण की युगल मूर्ति के प्रतीक स्वयं श्री जगन्नाथ जी हैं। इसी प्रतीक के रूप श्री जगन्नाथ से सम्पूर्ण जगत का उद्भव हुआ है। पूर्ण परात्पर भगवान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को जगन्नाथपुरी में आरम्भ होती है।

भगवान जगन्नाथ रथ यात्रा: मंदिर से बाहर आकर जगत का कल्याण करते हैं भगवान जगन्नाथ श्री पुरुषोत्तम क्षेत्र (जगन्नाथ पुरी उड़ीसा) में होने वाली रथयात्रा और भगवान जगन्नाथ जी की महिमा अवर्णनीय है। इसका उल्लेख विशेष रूप से स्कंद पुराण वैष्णव खंड के अंतर्गत पुरुषोत्तम क्षेत्र माहात्म्य में मिलता है। हालांकि रथयात्रा का वर्णन ब्रह्मपुराणादि अन्य पुराणों में भी है।

गजपति महाराज दिव्य सिंहदेव, महाप्रभु श्री जगन्नाथ मंदिर के प्रथम सेवक हैं, साथ में जगद्गुरु शंकराचार्य पुरी पीठाधीश्वर भी रहते हैं। स्कंद पुराण के अनुसार, प्रथम मन्वंतर के द्वितीय खंड सतयुग में जगन्नाथ जी की पहली रथयात्रा निकली थी। जब परमेश्वर इस पुरुषोत्तम क्षेत्र में नीलमाधव रूप में उपस्थित थे। उसी स्थान पर जहां यह श्रीमंदिर है। उस समय वह अंतर्धान हो गए। महाराजा इंद्रद्युम्न उस समय इस पृथ्वी के सम्राट थे। उनकी राजधानी अवंती नगरी में थी, जो अब उज्जैन है। उनकी प्रार्थना, तपस्या व भक्ति से वही परमात्मा परमेश्वर दारु (काष्ठ) विग्रह के रूप में बलराम और सुभद्रा के साथ प्रकट हुए।

जब राजा इंद्रद्युम ने जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाई तो रानी गुंडिचा ने मूर्तियां बनाते हुए मूर्तिकार विश्वकर्मा और मूर्तियों को देख लिया जिसके चलते मूर्तियां अधूरी ही रह गई तब आकाशवाणी हुई कि भगवान इसी रूप में स्थापित होना चाहते हैं। इसके बाद राजा ने इन्हीं अधूरी मूर्तियों को मंदिर में स्थापित कर दिया। उस वक्त भी आकाशवाणी हुई कि भगवान जगन्नाथ साल में एक बार अपनी जन्मभूमि मथुरा जरूर आएंगे। स्कंदपुराण के उत्कल खंड के अनुसार राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया के दिन प्रभु के उनकी जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की। तभी से यह परंपरा रथयात्रा के रूप में चली आ रही है।

महाराजा इंद्रद्युम्न ने जगन्नाथ जी का भव्य मंदिर सतयुग के प्रथम मन्वंतर में निर्माण कराया। वह मंदिर 1500 फीट ऊंचा था। जिस स्थान पर भगवान का आविर्भाव हुआ है, वह इस समय का गुंडिचा मंदिर है। उस समय यह मंदिर नहीं था। भगवान का आविर्भाव एक मंडप में हुआ था। उस मंडप से लेकर जो आदि मंदिर महाराज इंद्रद्युम्न ने निर्माण किया था, वहां तक पहुंचाने के लिए प्रथम रथयात्रा की सूचना हमें स्कंद पुराण से मिलती है।

किसी अन्य कल्प के श्रीकृष्ण अवतार के समय सुभद्रा के द्वारिका दर्शन की इच्छा पूरी करने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम ने अलग-अलग रथों में बैठकर यात्रा की थी। सुभद्रा की नगर यात्रा की स्मृति में ही यह रथयात्रा पुरी में हर साल होती है। इस समस्त रथयात्रा के बारे में स्‍कंद पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में भी बताया गया है। गुंडीचा मंदिर को ‘गुंडीचा बाड़ी’ भी कहते हैं। यह भगवान की मौसी का घर है। इस मंदिर के बारे में पौराणिक मान्यता है कि यहीं पर देवशिल्पी विश्वकर्मा ने भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी की प्रतिमाओं का निर्माण किया था।

आषाढ़ माह के दसवें दिन सभी रथ पुन: मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। यह रथयात्रा गुंडिचा मंदिर से उस वक्त के श्रीमंदिर तक हुई थी। उसी पुराण में भगवान ने स्वयं कहा है कि साल में एक बार वह अपने श्रीमंदिर से अपने जन्म स्थान मथुरा जाना चाहते हैं, क्योंकि जन्म स्थान उन्हें बहुत प्रिय है और यहां सात दिन रहना चाहते हैं। सात दिन बाद वापस आते हैं, जिसे हम बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। फिर भगवान अपने श्रीमंदिर में पुन: विराजमान होते हैं। यह सनातन वैदिक धर्म की बहुत ही अलग-सी परंपरा है।

इसलिए वैदिक परंपरा में जब हमारे मूल विग्रह जब मंदिर में, गर्भगृह में अपने सिंहासन पर प्रतिष्ठित हो जाते हैं, तब उनको वहां से हटाया नहीं जाता है। यहां जगन्नाथ जी सबके नाथ हैं। सबके नाथ का मतलब केवल पृथ्वी के लोगों के ही नाथ नहीं, बल्कि पूरे ब्रह्मांड के नाथ हैं। जगत के नाथ हैं। ऐसे में सबका अधिकार है, उनके दर्शन व उनकी कृपा प्राप्त करने की, ऐसे में यह असंभव है कि मूल विग्रह मंदिर के अंदर रहे। परंपरा को भंग करते हुए भगवान कहते हैं कि मैं स्वयं घर से निकलूंगा, ताकि ब्रह्मांड के जितने भी प्राणी हैं, यहां तक कि देवी-देवता भी मेरा दर्शन कर सकें। यह रथयात्रा का मूल उद्देश्य है। यह स्कंद पुराण में वर्णित है।

स्कंद पुराण में कहा गया है कि साल में दो तिथि में मंदिर के बाहर भगवान दर्शन देते हैं। इसमें से एक है आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि , फिर रथयात्रा एवं बाहुड़ा यात्रा के पश्चात भगवान जब अपने घर में आते हैं, वह तिथि आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी होती है। इससे पहले ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान भक्तों को मंदिर से बाहर दर्शन देते हैं। यहां प्रभु की स्नान यात्रा की जाती है। इसका महत्व है कि सनातन वैदिक धर्म में जो मूल विग्रह हैं, वह स्वयं सिंहासन को त्याग करके मंदिर के बाहर निकलते हैं। यह अनन्य परंपरा है। चूंकि वे जगत के नाथ हैं, इसलिए रथयात्रा में कोई भेदभाव नहीं रहता। सभी धर्म-संप्रदाय के लोग समान रूप से इसमें भाग लेते हैं। महाप्रभु के महाप्रसाद में भी यही भावना है। सभी एक समान रूप से लेते हैं। जगन्नाथ महाप्रभु ही परमात्मा, परमेश्वर, परमब्रह्म हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है कि इस स्थान को परमात्मा कभी नहीं छोड़ते हैं, मंदिर हो या ना हो।

यह रथयात्रा पुरी का प्रधान पर्व भी है। इसमें भाग लेने के लिए, इसके दर्शन लाभ के लिए हज़ारों, लाखों की संख्या में बाल, वृद्ध, युवा, नारी देश के सुदूर प्रांतों से आते हैं।

इस स्थान का धार्मिक महत्व जगन्नाथ का मंदिर है शास्त्रों और पुराणों में भी रथ-यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है। स्कन्द पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ-यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा नगर तक जाता है वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी का दर्शन करते हुए, प्रणाम करते हुए मार्ग के धूल-कीचड़ आदि में लोट-लोट कर जाते हैं वे सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं।

जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान श्री कृष्ण, बलराम और सुभद्रा देवी के दर्शन दक्षिण दिशा को आते हुए करते हैं वे मोक्ष को प्राप्त होते हैं। रथयात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं। सब मनिसा मोर परजा (सब मनुष्य मेरी प्रजा है), ये उनके उद्गार है। भगवान जगन्नाथ तो पुरुषोत्तम हैं। उनमें श्रीराम, श्रीकृष्ण अद्वैत का ब्रह्म समाहित है। उनके अनेक नाम है, वे पतित पावन हैं।

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