चार शुभ योग के साथ हरतालिका तीज का व्रत आज, जानें कब होगा व्रत का पारण

Hartalika-Teej

नई दिल्ली : हरतालिका तीज एक पावन और भावनात्मक पर्व है, जो भगवान शिव और माता पार्वती के दिव्य मिलन का प्रतीक माना जाता है। यह पर्व विशेष रूप से महिलाओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है। हर साल भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन मनाया जाने वाला यह त्योहार इस बार 26 अगस्त को पूरे श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जा रहा है।

इस दिन विवाहित महिलाएं निर्जला व्रत रखती हैं और अपने पति की लंबी उम्र, सुख-समृद्धि की कामना करती हैं। वहीं, कई कुंवारी कन्याएं भी उत्तम वर की प्राप्ति के लिए यह व्रत करती हैं। आज के समय में कई पुरुष भी अपनी पत्नियों के साथ यह व्रत रखकर इस पर्व की भावना को और मजबूत बना रहे हैं।

पौराणिक मान्यता के अनुसार, इसी दिन माता पार्वती ने कठोर तपस्या कर शिवजी को अपने जीवनसाथी के रूप में प्राप्त किया था। यही कारण है कि यह व्रत स्त्री-शक्ति, श्रद्धा और अटूट प्रेम का प्रतीक बन गया है।

हरितालिका तीज पर सर्वार्थ सिद्धि, शोभन, गजकेसरी और पंचमहापुरुष जैसे चार शुभ योग बन रहे हैं। इस व्रत का बहुत महत्व है। परंपरा के अनुसार, हरितालिका तीज का व्रत सौभाग्यवती महिलाओं के लिए अखंड सुहाग का प्रतीक माना जाता है।

यह व्रत उनके पति के लंबे जीवन और वैवाहिक सुख-समृद्धि की कामना के साथ रखा जाता है। वहीं, अविवाहित कन्याएं इस व्रत को मनचाहा और योग्य वर पाने की कामना से करती हैं। माना जाता है कि इस व्रत की श्रद्धा और निष्ठा से की गई उपासना का फल जरूर मिलता है।

हरतालिका तीज का पर्व शिव-पार्वती के अलौकिक प्रेम की स्मृति में मनाया जाता है और यह विशेष रूप से स्त्रियों के लिए अत्यंत श्रद्धा और आस्था का पर्व है। इस वर्ष यह व्रत 26 अगस्त को रखा जाएगा और पारण 27 अगस्त को किया जाएगा।

हरितालिका तीज में रंगों का भी विशेष महत्व है। इस दिन महिलाएं पारंपरिक शृंगार करती हैं और शुभ रंगों के वस्त्र धारण करती हैं। लाल रंग देवी पार्वती का प्रिय है, जो प्रेम और शक्ति का प्रतीक है। हरा रंग हरियाली और समृद्धि का संकेत देता है, जबकि गुलाबी रंग सौम्यता और आपसी समझ का प्रतीक माना जाता है, विशेष रूप से उन दंपतियों के लिए जिनके बीच कोई मतभेद हो। इसके विपरीत, काला, नीला, सफेद और क्रीम रंग वर्जित माने जाते हैं।

पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार कैलाश पर्वत पर माता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा कि उन्हें ऐसा कौन-सा पुण्य मिला, जिससे वे शिव को पति रूप में प्राप्त कर सकीं। इस पर भगवान शिव ने उन्हें उनकी ही तपस्या की स्मृति दिलाई। माता पार्वती ने बचपन से ही शिव को अपने मन में पति रूप में स्वीकार कर लिया था और इसी संकल्प के साथ उन्होंने 12 वर्षों तक कठोर तप किया। उन्होंने जंगल में रहकर पेड़ों के पत्ते खाए, अन्न का त्याग किया और हर मौसम की कठिनाइयों को सहा। उनके इस तप को देखकर उनके पिता, हिमालय राज चिंतित हो उठे।

उसी समय नारद ऋषि भगवान विष्णु का रिश्ता लेकर आए, जिसे हिमालय राज ने स्वीकार कर लिया। जब पार्वती जी को यह बताया गया, तो वे अत्यंत दुखी हुईं और अपने मन की बात सखियों से साझा की। उन्होंने कहा कि वे तो पहले ही भगवान शिव को पति रूप में स्वीकार कर चुकी हैं और किसी और से विवाह नहीं करेंगी।

यह सुनकर सखियों ने उनका अपहरण कर लिया और उन्हें एक गुफा में छुपा दिया। वहीं पार्वती जी ने भाद्रपद शुक्ल तृतीया को हस्त नक्षत्र में मिट्टी से शिवलिंग बनाकर शिव जी की आराधना की और रातभर जागरण किया। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर शिव जी प्रकट हुए और उन्हें पत्नी रूप में स्वीकार कर लिया। तब से यह व्रत उन महिलाओं द्वारा रखा जाता है जो अपने पति की लंबी उम्र और सुखद वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं, और अविवाहित कन्याएं योग्य वर पाने की इच्छा से यह उपवास करती हैं।