नई दिल्ली : पीओके में इस बार का आंदोलन पहले से कहीं ज्यादा व्यापक, संगठित और प्रभावशाली हो गया है। पाकिस्तान सेना की बर्बरता, महंगाई, बिजली संकट व सियासी असंतोष से यह विरोध अब पीओके मांगे आजादी के नारों के साथ गांव-गांव तक फैल चुका है। राजधानी मुजफ्फराबाद से आगे बढ़कर रावलकोट, कोटली, मीरपुर और अन्य जिलों तक पहुंचे इस आंदोलन ने सेना व सरकार लिए हालात मुश्किल कर दिए हैं।
एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच के अनुसार पहले के आंदोलन सिर्फ राजधानी तक सीमित होते थे। अब यह ढांचा टूट गया है। रावलकोट में वकीलों और शिक्षकों ने बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया। कोटली में युवाओं और छात्रों ने लंबा मार्च निकाला। मीरपुर के कस्बों में व्यापारी संगठनों ने बाजार बंद कराए। ग्रामीण किसानों, छोटे दुकानदारों ने भी धरने किए। कई स्थानों पर पुलिस और प्रदर्शनकारियों के बीच हाल में झड़पें भी हुईं। इससे पाकिस्तानी सेना व सरकार के लिए चुनौती गहरा गई है।
स्वतंत्र पर्यवेक्षकों के मुताबिक, आंदोलन संगठित करने में तारीक हामिद चुघताई, लतीफ शाह और गुलाम मुर्तजा जैसे नेताओं की अहम भूमिका है। चुघताई लंबे समय से बिजली और संसाधनों के अधिकार की मांग उठाते रहे हैं। लतीफ शाह वकीलों के संगठन से जुड़े होने के कारण आंदोलन को कानूनी वैधता व सियासी तर्क प्रदान कर रहे हैं।
डॉन की रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान सरकार ने पीओके में अर्धसैनिक बलों की तैनाती की है। बावजूद इसके, गांव-गांव तक फैली जनता की भागीदारी ने सुरक्षा तंत्र को दबाव में डाल दिया है। स्थानीय पत्रकार मानते हैं कि अब केवल राजधानी को काबू में रखकर इस आंदोलन को खत्म करना संभव नहीं होगा। यह सुरक्षा बलों के लिए चुनौती है।
इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, इस वक्त पाकिस्तान आंतरिक विद्रोहों के अभूतपूर्व दबाव का सामना कर रहा है। एक ओर बलूचिस्तान में दशकों से जारी अलगाववादी आंदोलन नए सिरे से ताकत पकड़ रहा है, वहीं केपी प्रांत में टीटीपी और स्थानीय विद्रोही गुटों ने सरकार व सेना के लिए गहरी सुरक्षा चुनौती खड़ी कर दी है। इन दोनों मोर्चों पर लड़खड़ाती स्थिति के बीच अब पीओके में सरकार की मुश्किलें बढ़ गई हैं।